डाक बाबू और अपाहिज लड़की, खून के रिश्ते से भी बढकर,1 दिल छू लेने वाली कहानी

नमस्कार दोस्तों, इस संसार में हम सभी के जीवन में रिश्ते बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है. रिश्ते हमें एक-दूसरे से प्यार करना सिखाते हैं, त्याग करना सिखाते हैं, यहीं नहीं एक दूसरे के दुखों में शामिल होने के लिए भी प्रेरित करते हैं. इसीलिए हमें अपने रिश्तों की अहमियत समजकर उन्हें निभाते आना चाहिए.

        शायर कहता हैं,
                         कोई टूटे तो उसे सजाना सिखा,
                         कोई रूठे तो उसे मनाना सीखो,
                         रिश्ते तो मिलते हैं मुकद्दर से,
                         बस उन्हें खूबसरती से निभाना सीखो.

         देखा जाए तो, हमारे जीवन में दो प्रकार के रिश्ते होते हैं. एक खून से जुड़ा रिश्ता और दूसरा भावनाओं से बना रिश्ता. और ये दोनों प्रकार के रिश्ते मानवीय भावनाओं का प्रतिक भी होते है. और हाँ, कभी कभी भावनाओं से बने रिश्ते खून के रिश्तों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाते हैं. तो आज हम आपको एक ऐसी ही दिल छू लेने वाली कहानी बताएंगे. इस कहानी का रिश्ता खून से नहीं, बल्कि भावनाओं से बना है.
          एक गाव में एक डाकबाबू समय समय पर पत्र वितरित करने आया करता था. डाक बाबू  की उम्र करीब 45 साल होगी. एक दिन एक घर के सामने खड़े होकर बोला, "डाकबाबू".
डाक बाबू की आवाज सुनकर उस घर में से एक लड़की का आवाज आया, "रुको, मैं आ रही हूँ."
2-4 मिनट हो गए लेकिन किसीने दरवाजा नहीं खोला. डाक बाबू के हाथ में वह आखरी पत्र नहीं था. और भी बहुत सारे पत्रों को वितरित करना था. इसलिए जल्दी दरवाजा ना खोलने के कारण डाक बाबू को थोड़ा गुस्सा आ गया था. और वह गुस्से में जोर से बोला, "घर में कोई है कि नहीं? पत्र देना था."
डाक बाबू का उंचा आवाज सुनकर लड़की घर में से ही बोली, "चाचा, दरवाजे के निचे से सरका दीजिए. मैं ले लुंगी."
लड़की की बाते सुनकर डाक बाबू बोला, "ऐसा नहीं चलेगा, रजिस्टर्ड पत्र है, दस्तखत करना होगा."
कुछ समय शांतता के बाद डाक बाबू को और ज्यादा गुस्सा आया. अभी उंचे आवाज में बोलने ही वाला था, कि दरवाजा खुला. और दरवाजे पर खड़ी लड़की को देख कर डाक बाबू के रौंगटे खड़े हो गए. दरवाजे पर दोनों ही पैरों से अपाहिज नौजवान लड़की खड़ी थी. करीब 24-25 साल की. उस लड़की को देखते ही डाकबाबू का गुस्सा थंडा हो गया. बिचारी को लकड़ियों के सहारे आने के वजह से देर हुई थी. डाक बाबू ने बगैर कुछ कहे पत्र देकर, दस्तखत लेकर चला गया.
       ऐसे ही समय-समय पर उस लड़की के पत्र आया करते थे, लेकिन अब वह डाक बाबू बिना गुस्से में उस लड़की की राह देखते दरवाजे पर खड़ा रहता था. भल्ले ही उस लड़की का कोई पत्र ना हो, लेकिन वह उसे मिले बगैर नहीं जाता था. ऐसे ही कुछ समय बीत गया.एक दिन वह डाकिया नंगे पैर पत्र देने आया. उस दिन डाक बाबू को नंगे पैर देखकर उस लड़की को बहुत बुरा लगा. उस लड़की को वह पत्र देकर चला गया, लेकिन जमीन पर उसके पैरों के निशान दिखाई दे रहे थे. लड़की एक कोरे कागद पर उन पैरों के निशानों को ले लिया. और गाव में जूते-चप्पल बेचने वाले एक दुकान में जाकर उस लड़की ने उन्ही माप के एक खूबसूरत जोड़ा खरीद लिया.
      वह समय बड़े त्यौहार का समय था. और रीती-रिवाज के तहत डाकबाबू को गाववाले इनाम के तौर पर कुछ भेट दिया करते थे. हर साल की तरह वह गाववालों से भेट लेने आया. भेट लेते लेते वह उस लड़की के घर के नजदीक आ पहुंचा. वह मन में विचार कर रहा था कि, इसके पास क्या मांगू? बिचारी पर पहले से ही अपाहिज के दुखों का पहाड़ हैं. लेकिन आया ही हूँ तो क्यों ना मिलकर जाऊ. उसने उस लड़की को आवाज दिया. और दरवाजा खोलने की राह देखता खड़ा रहा. लड़की ने दरवाजा खोला तो, डाकबाबू ने उसके हाथ में एक खूबसूरत बॉक्स देखा. लड़की बोली, "यह मेरी तरफ से एक छोटासा भेट, लेकिन इसे घर जाकर खोलना."
     घर जाकर डाक बाबू ने सारे भेट वस्तु देखा और खुश हो गया. लेकिन लड़की ने दिए भेट देखकर उसके आखों में पानी आ गया. अगले दिन वह सुबह जल्दी उठकर भेट में मिले उन्हीं जोड़ों को पहन कर डाकघर पहुंचा. और सीधे मास्टर से मिलकर बोला, " साहब मुझे फंड में से ॠण चाहिए."
मास्टर बोले, "आपके नाम तो पहले से ही काफी  ॠण है.और अब किस लिए?"
डाक बाबू बोले, "मुझे लकड़ी पैर लेना है इसलिए."
मास्टर बोले, "लेकिन आपका बेटा तो एक डीएम हटा कटा है. लकड़ी पैर किसके लिए."
डाक बाबू बोले, "साहब जो मेरे हटे कटे बेटे को नहीं समजा, वह एक पराई अपाहिज लड़की को सुचा. उसने मेरे नंगे पैरों का दर्द दूर किया है. उसी के लिए मैं ॠण लेकर क्यों ना, लेकिन लकड़ी पैर दे शकता हूँ. इसीलिए साहब मुझे ॠण दीजिए."
     डाक बाबू के मुहं से ये सब सुनने के बाद मास्टर समेत सभी एकदम शांत रहे गए. कुछ समय तक किसी के मुहं से एक लफ्ज भी बाहर नहीं निकला.
     तो दोस्तों, मैं कहना चाहूंगा, "रिश्ता या सबंध ये केवल खून के होने से नहीं चलता, रिश्तों की भावना खून में होनी चाहिए. और यह भावना जिसके अंदर हो उसे अपना रिश्तेदार बनाने में कोई बात नहीं है. दोस्तों, यह प्रेरणादायक कहानी आपको कैसी लगी. हमें जरुर बताए. धन्यवाद

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